कुरुक्षेत्र
कुरुक्षेत्र
हो कर उदास जब जा बैठा, कलयुग का अर्जुन कोने में,
कुछ पाने की इच्छा शेष न थी, अवसाद न था तब खोने में..!
बस कोस रहा था खुद को क्यों अनयत्र युद्ध में कूद पड़ा,
अब कर्म करूँ या फेरूं मुंह यह कहते-कहते फुट पड़ा ..!!
पग पग पर दुविधा है मोहन अपनों का रचाया जाल है सब,
मेरा अंतर्मन ही कोसेगा, गर आज नहीं तो करूँगा कब...!
जो त्याग किया इस कुरूक्षेत्र का, नतमस्तक यदि हो जाऊंगा,
जग हंसेगा मुझ पर और सदा रणछोड़ ही मैं कहलाऊंगा..!!
मैं देख रहा हूँ कटे शीश, अपनों के बहते रक्त को,
पशु, पक्षी भी मुझ को कोस रहे, ताने दे रहे दरख्तों को..!
इस असमंजस के वशीभूत अब समर को कैसे ठानू मैं,
खुद टूट चुका हूँ कान्हा फिर, गांडीव भला क्या तानू
मैं...!!
दुर्भाग्य मेरा यह कैसा है, जो कर्म से मुझ को रोक रहा,
यदि दामन थामू धर्म का तो, सत्कर्म भला क्यों टोक रहा..!
सत्य, असत्य, कलेश, कलंक, की यह कैसी एक माया है,
कलयुग का यह पार्थ आपका शस्त्र त्यागने आया है..!!
हे पार्थ सुनो मेरे वचनों को यह कहके वंशीधर बोल पड़े,
निष्ठुर, अमोघ संज्ञानों को सुन रहा था अर्जुन खड़े खड़े,..!
सुख, दुख, पीड़ा, जय, पराजय, जीवन रथ के बस चक्र मात्र,
निश्चिंतीत हो तुम रहो कर्मरत है यथार्थ यही परमार्थ..!!
जग निश्चित है एक कुरूक्षेत्र, हर शख्स में अर्जुन पाओगे,
है कौरवों से जो घिरा हुआ, पर कृष्ण कहाँ से लाओगे..!
यदि युद्ध विजय की है मंशा तो खुद में माधव को ढूंढो,
अन्यथा कायरों की भांति किसी, कुरूक्षेत्र में मत कूदो...!!