कुदरत के आंसू
कुदरत के आंसू
इन्सान निचोडे कुदरत को गुस्सेका सैलाब आया है
खुदगर्जी भरे कई कामों का हम ने ये नतिजा पाया है !
बारिश के आंसूं थमते नही या सिसक् रों रहा धरती का दिल
कही धधक रही हरीयाली है इन सबसे हो रहा क्या हासिल ?
दे दे के चवन्नी लुटा रहे नायाब तिलस्मी खजाने को
आगाज प्रलय की दे सी रही धरती माँ हम इन्सानों को !
अपने दो गज़ के घरोंदे को दिलजान लगाके संवारे हम
गर समझे जहॉं को ही घर सा और उसें बचाने उठाए कदम।