जीवन का सच
जीवन का सच
कितनी ही दलीले दे इन्सां,
खुदसें उपर कोईं होता नहीं !
ऑंसू का छलावा रहता है,
मतलब कें सीवां कोई रोता नहीं !
आगांज़ हमेशा रहता है,
सच्चाई उज़ागर होती नहीं
बिन मॉंगे दूवां भी कबूल ना हों,
मॉंगे तो कसक् रह जाती है !
खुद्दारी के आईने पर शमसार घटॉं छां जाती है !
उलझन् में डुबिं सी जाती है,
खुशहाल दिनों की ये रंगत
धुंदलाई ख़फॉंसी रातों में कोहरें की बची है अब संगत !
सहमेंसे सिकुड़ के जीते रहे,
खुद की ही हमें पहचान नहीं
दुनियादारीं की रस्मों में नवयुग की दबाई सोच कहीं !