STORYMIRROR

Parinita Sareen

Abstract

4  

Parinita Sareen

Abstract

कुछ तुम्हारी, कुछ हमारी - उलझनें

कुछ तुम्हारी, कुछ हमारी - उलझनें

2 mins
529

मैंने अक्सर खुद को सही - गलत की कश-म-कश में पाया है,

दिल की चाह या दिमाग का राह - 

किसी एक को चुनना आसान तो नहीं।

मुश्किल हो जाता है, कभी - कभी 

ख़ुद को समझना और समझाना।

जिन चीज़ों को कभी शिद्दत से मांगा था, 

आज उन्हीं चीज़ों की अहमियत पर प्रश्न चिन्ह लगाए खड़ी हूं,

ना जाने कितनी बार,

मैं खुद से खुद की ही खुशियों के लिए लड़ी हूं।

इस छोटी सी जिंदगी ने इतना तो सिखा दिया कि आते जाते लोगों से

दिल लगाना, इसे बहलाना सही नहीं,

कुछ सही है तो सिर्फ अपनी मंज़िल के लिए

हर जीत की, हर खुशी की, हर शख्स की कुर्बानी देना,

और निरंतर आगे बढ़ना और चलते चले जाना।

सच कहूं तो, 

शायद नहीं पता मुझे कि यह सही है या नहीं,

पर हां, इतना जानती हूं कि यह ज़रूरी है और 

उम्मीदों पर नहीं ज़रूरतों पर दुनिया कायम है।

याद आती है खुद की इन कमज़ोर पलों में,

दिल चाहता है फिर एक बार बच्चा बन जाया जाए 

पर ये कमबख़्त उमर चाहतों की मोहताज कहां होती है?

कहते हैं, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, 

मैंने मंजिल पाने की महज़ चाहत में ही

खुद को खो दिया या

शायद खुद को पा लिया।

कुछ सवालों के जवाब वक्त गुज़रने पर ही पता चलते हैं।

बहरहाल, हाथ में गर्म कॉफी की प्याली लिए 

उसी उलझन पर गौर फरमाया जाए,

दिल की चाह या दिमाग की राह

किसी एक को सही मान कर चुनना आसान तो नहीं।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract