कुछ अनकही
कुछ अनकही
कुछ अनकही बातें,
कुछ पुरानी यादें
कहां से आती हैं
कहां चली जाती है
कुछ नहीं समझ आता
क्या होता है कभी कभी।
कुछ अनजान रास्ते और
अनजान राहें
जाना कहां हैं समझ नहीं आता
बीच राह में खड़े खड़े
मन बड़ा घबराता
रास्ते पर खड़े खड़े सोचती हूँ
अक्सर क्यूँ नही आगे बढ़ पाती मैं
अपनी डग़र पर लगता है ऐसा
क्या मैं आपसी मंजिल पर पहुंच पाऊँगी
या चौराहे पर अकेली खड़ी रह जाऊँगी
क्यूँ होता है अक्सर मेरे साथ ऐसा
कि मंजिल होती है पास
लेकिन नसीब नहीं देता साथ।