कठपुतली
कठपुतली
काठ की गुड़िया, काठ का खेला
बरसों पुराना अल्हड़ खुशी का मेला,
हाथ बंधे हैं डोर से, डोर का मालिक कोई और
कभी उछले कूदे, या नाचे, मस्ती छाई चहुं ओर,
जब देखा खेला बचपन में तब खूब मज़ा लेते थे
हम भी खुद को उस जैसी सुंदर गुड़िया समझते थे,
ना समझ थी, ना था कोई ज्ञान
क्यूं खुद से ना चलती थी गुड़िया
कभी मन में ना आया ध्यान,
बरस बीते , उम्र हुई , हुईं हमरी भी बिदाई
छूटा आंगन बाबुल का , पी के घर दिन रैन बिताई,
दिल से कभी ना बिसरी लेकिन वो पुरानी बात
वो दिवाली का मेला, वो सुंदर कठपुतली का नाच,
पर अब सोचती हूं , जब आया थोड़ा ज्ञान..
कहीं मैं भी काठ की गुड़िया तो नहीं
सजती डोलूं जो इधर उधर ,
जिधर खींचे डोर कोई, मैं मुड़ जाऊं उस ओर
मेरा मुझ में कुछ नहीं, मुझे पालने वाला कोई और,
वही मेरा मालिक है, जिधर कहता है, चलती हूं
बाबुल हो या प्रीतम, बस आज्ञा धरती हूं,
काश हो जाए कोई जादू, फूंके जो मुझ में जान
अपनी मर्ज़ी से डोलूं फिर में हर बस्ती, हर गांव।
