कशतियॉं
कशतियॉं
निकला जो एक दिन मैं रिश्तों की,
कशतियो का कारवां लेकर,
उफनते समुंदर की गहराईयों में,
सामने नजर आया चिलचिलाता तूफान,
शाम की किलकारियों में।
खुद को कुछ यूं असमंजस में पाया,
भयभीत दिल को भी न कुछ समझ आया,
विचलित मन यह सोचकर घबराया,
कैसे लडूगां इस तूफान की हैवानियत से,
कैसे पार पाऊंगा इसकी ऊंचाईयों से।
पलट के देखा जो मैंने,
आखों में साथ खड़ी कशतियो के,
सहारे का एहसास जगमगाया,
मानो जैसे एक हिम्मत की लहर,
आखों से दौड़ कर,
दिल को हौसला दे गई,
लगा कि पार हैं ऐसी हर हैवानियत,
जिसके सामने, अपने साथ खड़े हो।
जोश में कुछ यूं आगे बढ़ा मैं,
कि सीधा मुॅंह के बल धम गिरा,
फिर तो कुछ यूं हसाॅं तूफान मुझपे,
कि न मैं हॅंस सका,
न अश्क बहा सका।
आखों में डर का मंजर देख,
जब तूफान गुर्राया,
तब कुछ अपनों की कशतियो को,
अपने और तूफान के बीच खड़े पाया,
दिल तब आखों के लिए,
ऐसा खुशी का तोहफा लाया,
कि आसुओं की टोली,
जश्न मनाते निकल पड़ी।
थम गया तब तूफान,
धड़कने भी हुई शांत,
हुआ जब सवेरा,
नजर आया न सिर्फ किनारा,
मिला मुझे खोया उजाला।
समझ आई एक बात,
कि बाकी सारी कशतिया तो कागज़ की थी,
जलजले में डूब के बिखर गई,
खड़ी तो आगे वही कशतिया थी,
जिनको खुद से ज्यादा मेरी परवा थीं।
ये कशतिया तो,
भगवान् के बनाए रिश्तों की थी,
इंसान की बनाई कशतिया तो,
उनकी तरह बनावटी थी।
स्वर्ग में पिरोए रिश्ते ही,
हाथ पकड़ कर पार करा देते है,
हर कठिन डगर,
रह जाते है वो कागज़ के रिश्ते,
जिनके पीछे हम भागते उम्र भर,
साथ छोड़ देते वो यू ही किसी मोड़ पर !