कर्म और भाग्य
कर्म और भाग्य
कर्म और भाग्य
परस्पर यदि
पूरक हो जाते हैं,
जीवन की
गुणा-भाग में ये
एक और एक
ग्यारह बनाते हैं,
भाग्य नहीं
अपने वश में,
सृष्टि का विधान है ये,
ना नियंत्रण
नर का कोई,
प्रारब्धों का
उपदान है ये,
किन्तु जो वश में है,
वो मानव के
अपने कर्म हैं,
अपने कर्म को करते जाना,
सहज स्वाभाविक
धर्म है,
सत्कर्मों पर चलकर हम,
सौभाग्य को भी
पा सकते हैं,
बन के प्रसून
भव- उपवन के
संसार को
महका सकते हैं,
आओ हम
आशाएं चुन लें,
ना रहें भरोसे
भाग्य कभी,
हम कर्म करें,
विनम्र रहें,
सुख-स्वप्न बनेगा,
साध्य तभी।
