कर रही धरा है चीत्कार
कर रही धरा है चीत्कार
कर रही धरा है चीत्कार,
बढ गया पाप कर्मो का भार।
अपहरण लूट अरु हत्याये,
व्यभिचार कही कहि दुराचार
चल रहा यही क्रम बार बार।
कर रही धरा है चीत्कार।
ईर्ष्या द्वेष छल कपट निंदा,
मानव पर रहते सवार।
जिनके वश मे होकर के वह,
करता मनुष्यता क्षार क्षार।
कर रही धरा है चीत्कार।
उपजा अन्न और श्रम करके,
करे देश जन का उद्धार।
किन्तु वही दुख ग्रसित कुपोषित
है जो सबका पालनहार।
कर रही धरा है चीत्कार।
कुत्तो लाशों का जगती पर,
होता देखा आदर दुलार।
पर भूखे नंगे आर्तृ जनो की,
सुने नही कोई पुकार।
कर रही धरा है चीत्कार।
जो भविष्य कहलाते जग के
बर्तन धोते खाते मार।
शिक्षा खेल स्वास्थ्य से बंचित,
सहते अमानुषिक व्यवहार।
कर रही धरा है चीत्कार।
अब भी चेतो हे जीव श्रेष्ठ
कर लो अपना जो गर सुधार।
हो जाएं प्रमुदित जीव सकल
आए जीवन मे फिर वहार।
कर रही धरा है चीत्कार।
