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Neena Ghai

Abstract

4.7  

Neena Ghai

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कोरोना

कोरोना

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  न जाने उस दिन कैसी शीतल हवा थी चली,  

और उस हवा ने किस मोड़ पर  

आंधी का रुख था अपनाया । 

आंधी से गर्द ऐसी उठी थी कि 

नाम  करोना  महामारी था पाया , 

कुदरत ने भी रंग अब  था अपना दिखाया। 

 

इनसान हुआ था अब पिंजरों  में बन्द 

पिंजरों के जानवर खुली  और शान्त राहों  

पर नजर आने लगे थे अब 

परिन्दें भी चहकते नजर आने लगे थे  

अब, प्रदूषण रहित खुले आसमान पर। 

 

लाक डाउन था इनसानों  पर 

शायद, इनसान ने अपनी  बढ़ती तिशनगी से 

जानवरों और पक्षियों पर 

बहुत  जुल्म  था ढाया  

अब कुदरत ने भी था सबक सिखाना। 

 

क्यों इतना है खुदगर्ज  तूं बन्दे  

नाम  लेकर मेरा, करता है तूं जुल्म  

फिर भी न जाने मैं क्यों देता हूँ  

मौके  बारंबार। 


भेजता हूँ  जो हाथ तुझे बचाने  

काट  देता है तूं उन्हें  बारंबार। 

करनी है गर , मुझ से  मुहब्बत  

या करनी है  मेरी इबादत  

कर मेरे इन बन्दों से मुहब्बत 


इस नेक काम के लिए एक कदम तो बढ़ा 

मैं चार कदम तेरे पास  आऊँगा  

तेरी हर दुआ तेरे लब पे आने से पहले  

ही कबूल कर लूंगा।   


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