कोरा मटका
कोरा मटका
बैठे बैठे कुम्हार ने मन में
घड़ा बनाने का सोचा
जंगल जा कर उसने
फिर माटी को खोदा
माटी लेकर वो काँन्धे पर
वापिस घर को लौटा
हथोड़े और डंडे से उसने
जमकर माटी को कूटा
पानी डाल डाल माटी को
पलट पलट कर गूँथा
मसल मसल हाथों पैरों से
कंकड़ पत्थर छांटा
हाथों से पकड़ के माटी को
सम्भल के चाक पे डाला
फिर डंडे की मदद से
चाक को खूब घुमाया
रूप में ढालने को कुम्हार ने
माटी पर हाथ चलाया
धीरे धीरे माटी को
गोल आकार बनाया
बाहर से खूब पीटा उसको
अंदर से दिया सहारा
हल्के हाथों से उस कुम्हार ने
उस घड़े को संभाला
पुलकित हुआ मन उसका
घड़ा जब रूप में आया
फिर बाहर की धूप में
ले जाकर उसे सुखाया
डाल के लकड़ी, कोयला
उसने भट्टी को सुलगाया
भट्टी सुलगी लपटें निकली
सारा परिवेश गरमाया
कच्चे सूखे घड़े को कुम्हार ने
भट्टी में डाल तपाया
लाल किया तपा कर उसका
सारा अहम जलाया
पक्के घड़े को देख कुम्हार
मन ही मन मुस्काया
सुंदर बेल बूटियों से उसने
उस घड़े को सजाया
उसको ले कर वो कुम्हार
बेचने बाज़ार में आया
उस सुंदर से घड़े का उसने
एक अच्छा मोल लगाया
अपनी कीमत जान के
वो घड़ा मन ही मन मुस्काया
कूटा पीटा रौंदा गया फिर भी
वह अपनी राह से ना भटका
खुद को तपा कर अहम जलाकर
फिर भी नहीं वो चटका
जीवन का मकसद समझ के
उसने स्वार्थ से दामन झटका
प्यास बुझाने फिर लोगों की
आया तब एक 'कोरा मटका'।