कलकल छलछल
कलकल छलछल
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नदी की आत्मकथा,
कहती है,
वो कल- कल, छल- छल,
बहती है
जीवन का राग सुनती है,
लोगों को मोक्ष दे जाती है,
उसका अमृत जल पीकर,
जग को पावन कर जाती है
पर उसकी धारा को हमने रोका है,
जीवन के साज को तोड़ा है,
पतित पावन धारा को,
कलंकित करके छोड़ा है
अब भी
वक्त जो ठहरा है,
उसमें सबक एक गहरा है,
सुन लो नदी की आत्मकथा,
महसूस करो तुम उसकी व्यथा,
इस धारा को तुम मत रोको,
जीवन के सुर - ताल को मत छेड़ो,
अस्तित्व की रक्षा में झुककर,
नदी को निर्बाध बहने दो।