कली सी नाज़ुक हूँ
कली सी नाज़ुक हूँ
कली सी नाज़ुक हूंँ,
पर कमज़ोर नहीं,
स्वभाव से क्षमा शील हूंँ मैं,
पर लाचार नहीं,
हर युग में सामाजिक बंधन की,
बेड़ियों से बांँधा गया है मुझे,
मैं भी छू सकती हूंँ आसमान,
ये बंधन मुझे स्वीकार नहीं,
हांँ, मैं नारी हूंँ,
खुद को संभालना जानती हूंँ,
टूटती हूंँ, बिखरती हूंँ कई बार,
पर मानती हूँ कभी भी हार नहीं,
क्यों मुझे ही हर बार,
आदर्श,संस्कार का पाठ पढ़ाया जाता है,
बिना किसी गलती के कटघरे में कर देते खड़ा,
क्यों ये अग्नि परीक्षा, है जिसका कोई आधार नहीं,
कभी कोख में मार दी जाती,
कभी जलाई जाती दहेज़ की खातिर,
क्यों होता है तिरस्कार, आखिर क्यों होता दुष्कर्म,
क्या नारी होना जुर्म है क्या मुझे जीने का अधिकार नहीं,
देवी रूप में घर-घर पूजी जाती,
फिर भी क्यों हर युग में जुर्म सहती,
रीति-रिवाजों में बंधकर भी पूरे मन से फ़र्ज़ निभाती,
फिर क्यों यह समाज कभी समझता मेरा किरदार नहीं।