कला कालजयी
कला कालजयी
भावना के समंदर में तूफानी हिलोर की मन बहा जाये
कामना एक सुंदर मन रहा निटोर, जिसे अब कहा जाये
तुमहो अति सुंदर समिटे खूबीअंदर की क्या कहा जाए
गुमहो यति इंदर प्रगटे रवि चन्दर कोई कहां तक गाए
रस से भरी रसातल की हो कौतुहल कुछ जान न परे
मन था अभिमानी तुम्हे न पहचानी जो सम्मान न करे
जग सुन किसमे हूँ मैं डुबा, क्या है मेरी मनसूबा जरा
हुनर जिसमें हो छुपा, ओ हुनर ही अजुबा जो प्रेम भरा
ताकें क्यों जगको, बता दें ये सबको की हम कम नहीं
दिल समंदर विशाल में उमंग उछाल उठने दो तरंग वहीं
तरासअपने लगन से, समर्पण तन मन धन से रंग भर के
उदास न हो मन से, उपहास जग जन के, न भाग डर के
तू न किसी का मोहताज है, कला तेरी कल का ताज है
दिलमें समंदर विशाल, रच कला तेरी बेमिशाल आज है
दिल में सुकून त्रितल का, कला तेरी सदा कालजयी बने
तू रहे न रहे जमाना ये ही कहे कृति ये जोअद्वितीय बने।
