।। किताब की आत्मकहानी ।।
।। किताब की आत्मकहानी ।।
चलो अभी फ़ुरसत का समय है,
तो दिल की कुछ बात रखती हूँ मैं,
आओ दुनियावालों बैठो मेरे साथ
चाय का गिलास लेकर,
तुमको अपनी आत्मकहानी आज सुनाती हूँ मैं।
ज्ञान का सागर हूँ मैं,
ज्ञानी का प्रिय आहार हूँ मैं,
ढूंढ लो दुनियावालों पूरे जहां में,
अपनों से भी ज्यादा वफादार हूँ मैं।
सत्य हूँ मैं, धर्म हूँ मैं,
माता हूँ मैं, पिता हूँ मैं,
ज्ञान के प्यास में लगातार जलने वाली
पाठकों के मन की वह चिता हूँ मैं।
भिन्न भिन्न के स्वर, रंग
और रूप में आती हूँ मैं,
भीड़ देखूँ ना तन्हाई,
साथ खूब निभाती हूँ मैं।
लोगों के मन मुताबिक
का मौसम हूँ मैं,
गर्मियों में छाँव और जाड़े की
धूप बन जाती हूँ मैं।
सही गलत का आभास
कराने वाली शस्त्र हूँ मैं,
दुनिया के हर विपत्ति से लड़ने वाली
वह शक्तिशाली अस्त्र हूँ मैं।
चाहे वह धनी हो या ग़रीब,
सबके लिए एक समान हूँ मैं,
मैं इस कलियुग के मानव जैसी नहीं,
हाथ पैर मुझमें ना होते हुए भी
एक अच्छी और सच्ची इंसान हूँ मैं।
सादगी भरा जीवन जीती हूँ मैं,
जो दिल की बात है, वही पन्नों पर रखती हूँ मैं,
विचारों को स्वछंद रखकर पक्षी के भाँति,
जीवन में संघर्ष करना सिखाती हूँ मैं।
गीता, बाइबल, कुरान, गुरु ग्रंथ
यह सब ग्रंथों का कथन हूँ मैं,
कठोर, कड़वी पर सत्य बोली है मेरी,
इसलिए कहा जाता है साधुओं का वचन हूँ मैं।
किसी के लिए अजीब,
तो किसी के लिए अजीज हूँ मैं,
उपयोग जो ठीक से कर लिया मेरा
लोहे को सोने में बदल देने वाली वह चीज़ हूँ मैं।
सफलता का कारण हूँ मैं,
हर डर का निवारण हूँ मैं,
मनोरंजन का साधन तो हूँ ही साथ में
उलझे हुए प्रश्नों का समाधान हूँ मैं।
युग युगांतर से अस्तित्व है मेरा,
धूप देखूँ न बारिश हर
चीज़ से लड़ जाती हूँ मैं।
आज की जमाने की हुई तो
हर जगह नजर आऊंगी मैं,
जो ढूंढने पर ना मिलूं,
तो संग्रहालय के किसी
ताक पर मिल जाऊंगी मैं।
जनाब ! जो अपनाए मुझे प्यार से,
करती हूँ वादा उनसे,
पूरा इतिहास रच दूंगी उनके नाम..
मेरे पन्नों पर सुनहरे अक्षरों से।
ज़िन्दगी को जीना सिखाती हूँ मैं,
अंधकार से उजाले की तरफ राह दिखाती हूँ मैं,
याद दिलाती हूँ मेरे पाठकों को उनकी हार का,
और फिर कठिन परिश्रम से
जीत का स्वाद चखाती हूँ मैं।