किसी रोज़
किसी रोज़
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किसी रोज़ मैं फिर कहीं घूम आऊं
मैं रेतों के बीच टूटते घर बनाऊं
मैं फिर बादलों को कहानी सुनाऊं
मैं कहूं राज़ अपने न किसी को बताऊं
मैं बारिश की बूंदों के संग मुस्कुराऊं
किसी रोज़.........
मैं दिन के उजालों में रास्ते बनाऊं
चांद की चांदनी में कुछ पल थम जाऊं
मैं दिल की सुनूं पर नजारों के बाद
मैं बादलों में सुंदर आकृतियां बनाऊं
किसी रोज़.........
मैं रातों में जुगनू निहारे करूं
मैं समंदर की लहरों के संग गोते लगाऊं
मैं भोर की लाली को दिल में बसाऊं
चढ़े फिर जो सूरज मैं लौट आऊं
किसी रोज़.......