"किसान"(अन्नदाता)
"किसान"(अन्नदाता)
यामिनी के बीतते ही,
चल पडा है अन्नदाता।
निजस्वेद से है तरबतर,
सुंदर फसल है उगाता।
शस्यश्यामल है धरा अब,
गुणगान होना चाहिए।
अन्नदाता का धरा पर,
मान होना चाहिए।।
सींचता है खेत दिन भर,
जेठ की तपती अगन में।
कँपकपाती रूह झर-झर,
उस कडकडाती ठंड में।
घोर सावन क्यों न बरसे,
बस! काम होना चाहिए।
अन्नदाता का धरा पर,
मान होना चाहिए ।।
कर्मयोगी कर्मपथ पर,
दो जून रोटी चाहिए।
सीना धरा का चीरकर,
बस अन्न उगना चाहिए।
पुरुषार्थ के इस देव का,
यशगान होना चाहिए।
अन्नदाता का धरा पर,
मान होना चाहिए।।
प्रतिबद्ध है निज धर्म पर,
मही को बनाता स्वर्ग है।
कटिबद्ध अपने कर्म पर,
हलधर उगाता स्वर्ण है।
बलराम के पर्याय का,
सम्मान होना चाहिए।
अन्नदाता का धरा पर,
मान होना चाहिए।।
हो रहा क्या आज भू पर
यह भी बताता मैं चलूँ।
हलधर सिसकता वेदना में,
सोचता है जहर खा लूँ।
उगाई फसल का दाम भी,
सम्यक ही होना चाहिए।।
वो घर बार अपने खो चुके,
कुछ कर्ज में डूबे हुए हैं।
"राम" भी बरसे नही जब,
स्वयं फाँसी खा चुके हैं।
कुंभकर्णी नींद से अब,
शासन को जगना चाहिए।
अन्नदाता का धरा पर,
मान होना चाहिए ।।
विकास का आधार ही,
ये बेसहारा क्यों हुआ?
कृषि प्रधान देश में यूँ,
जर्जर कृषक ही क्यों हुआ?
हलधर का जीवन भी अभी
"रौशन" ही होना चाहिए।
अन्नदाता का धरा पर ,
मान होना चाहिए।।