ख्वाहिश
ख्वाहिश
दिल्ली शहर में तुम्हारे रहने भर से मेरी सारी ख्वाहिशें पूरी हो सकती थी। फ़िर चाहे उन ख्वाबों में तुम्हारी लटों को सहेजकर कानों के पीछे रखना हो, आँखों में डूबना हो अथवा होंठों को.... ख़ैर छोड़ो।
तुम यहाँ नहीं हो और तुम्हारा यहाँ नहीं होना मुझ आशावादी मनुष्य को अतिआशावादी बना देने के लिए काफी है।
मैं बहुत पहले से उम्मीदों पर जिन्दा रहा हूँ,
जब सब ख़त्म हो जाता है तब भी मैं किसी दरिचे में उम्मीद की ऊँगली पकड़कर लटक जाता हूँ और इस बार तो कुछ ख़त्म भी नहीं हुआ है और ऊँगली के नाम पर पूरा शहर है, तुम्हारी गलियाँ है, तुम्हारी यादें है और सबसे खास हमारे साथ की अनगिनत यादें और तस्वीरें हैं।
और शायद मुझे आज इस बात को स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि प्रेमिकाओं के मामले में हमेशा से धनी रहा हूँ, एक के जाने पर दूसरी आती रही और दूसरी के जाने पर तीसरी और यह चलता रहा है।
लेकिन तुम्हें जब पहली बार देखा था तब ठहरने का मन किया, तुमपे रुकने का मन किया और किसी भी सुख-दुःख में सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे काँधे पर सर रखने की चाहत रह गयी है। हम दोनों के शहरों के बीच की दूरियाँ गलत है, शायद ये वक़्त गलत है या फ़िर शायद सब सही ही है बस मेरे देखने भर का नजरिया गलत है।
इस गलत, सही, दिन, रात और सारे आयामों के बीच मुझे तुम मुस्कुराती हुई नजर आती हो और तुम्हें मुस्कुराते हुए देखना मेरे जीवन के सबसे सुखद पलों में से एक है।
वैसे लोग कहते हैं ख्वाहिशें पूरी नहीं होती हैं तो सुनो तुम कोई ख्वाहिश नहीं मेरी हकीकत हो।