Mani Aggarwal

Abstract

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Mani Aggarwal

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ख्वाहिश

ख्वाहिश

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आज फिर तन्हाइयों में बेखुदी छाने लगी

आपसे पहले मिलन की याद तड़पाने लगी।


रात दिन की कोशिशें ज़ाया घड़ी में हो गईं,

बस लगे थे भूलने हिचकी तभी आने लगी।


जिस गुलिस्तां पर खिज़ा ताउम्र को काबिज़ हुई,

आज क्यूँ बाद-ए-सबा उस ओर मुड़ जाने लगी।


देखिये उस ओर शायद अजनबी आया कोई,

ये हवा भी कुछ महक कर दिल को भरमाने लगी।


क्यूँ हुई हैं आज हलचल आरजू की कब्र में,

मिट गई थी जो कभी फिर जिंदगी पाने लगी।


काश ये सारे भरम बदलें हक़ीकत में सनम,

आज फिर से एक ख्वाहिश छुप के फरमाने लगी। 


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