STORYMIRROR

Mani Aggarwal

Abstract

3  

Mani Aggarwal

Abstract

ख्वाहिश

ख्वाहिश

1 min
388

आज फिर तन्हाइयों में बेखुदी छाने लगी

आपसे पहले मिलन की याद तड़पाने लगी।


रात दिन की कोशिशें ज़ाया घड़ी में हो गईं,

बस लगे थे भूलने हिचकी तभी आने लगी।


जिस गुलिस्तां पर खिज़ा ताउम्र को काबिज़ हुई,

आज क्यूँ बाद-ए-सबा उस ओर मुड़ जाने लगी।


देखिये उस ओर शायद अजनबी आया कोई,

ये हवा भी कुछ महक कर दिल को भरमाने लगी।


क्यूँ हुई हैं आज हलचल आरजू की कब्र में,

मिट गई थी जो कभी फिर जिंदगी पाने लगी।


काश ये सारे भरम बदलें हक़ीकत में सनम,

आज फिर से एक ख्वाहिश छुप के फरमाने लगी। 


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract