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Prem Bajaj

Abstract

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Prem Bajaj

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कहाँ से निकली

कहाँ से निकली

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कहाँ से निकली, कहाँ चली मैं,

कहाँ पे जा के लोप हो गई।

टेढ़ी-मेढ़ी डगर से निकलती,

पत्थरों का भी सीना चीरती,

अपने पिया के मिलन को जाती।


कहीं पे पानी मीठा बनाती,

कहीं पे वो खारा बन जाता।

इक पल भी ना मैं रूकती,

बहती रहती-बहती रहती।


छल-छल करता निर्मल जल मेरा,

रूक कर कही भी

डाले ना डेरा।

रूक जाऊँगी तो शाम ढलेगी,

मैली (काई लग जाना) मैं हो जाऊँगी,

पिया मिलन को फिर

भला कैसे मै जा पाऊँगी।


तरस रही मैं पिया मिलन को,

अपना -आप लूटा जाने को

शर-शर करती भाग रही हूँ,

शहर-गाँव मै लाँघ रही हूँ


सागर मे जा मिलना मुझको,

अपना अस्तितव है खोना मुझको।

बाहों मे पिया की मैं झुलुँगी,

मैं भी खारी बन जाऊँगी,

अपना अस्तितव मैं भूलूँगी,

अपनी मिठास मैं भूलूँगी।


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