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Nidhi Dubey

Romance

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Nidhi Dubey

Romance

खाक मन

खाक मन

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मेरे अंदर जल रहे हो,

राख बन शब्दों में उड़ रहे हो,

ऐसी ज्वाला है तुमसे उठी,

तुम मेरे नयनों से बह रहे हो।


तुम कौन सी वो आस हो,

जो जला चुके हो मुझको यूँ,

आदत जलने की ऐसी हुई,

ना तुम्हें अब मैं बुझा सकूँ।


वर्षों से बढ़ते गए जो तुम;

अब हाहाकार मचा कर देख लो,

किस किस को ताप लगती है,

मुझको यूँ जला कर देख लो।


कभी डर की आहुति दी थी मैंने;

कभी गलतियों के बोझ को स्वाहा किया,

असहाय बनी तो नफरत की घी से,

तेज तुम्हारी लौ का बढ़ा दिया।


आग्नेयगिरि बन जो गई हूँ,

छू ना ले कोई अबोध मुझे,

जल जाएगा विशाल सागर भी,

अगर बुझाने आये वो मुझे।


ना प्यास है मुझमे बची कोई,

ना तृष्णा तुम्हें बुझाने की,

बस इस तप से जलते रहना है,

आदत जो हो गई है आंच की।


नहीं मोहताज पूर्णता का,

ये मेरा मन अब रहे,

ख़ाक हो कर भी संतुष्ट हो,

अधजला ना ये रह पा सके।।


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