कबतक निर्भय बढ़ पाऊँगा
कबतक निर्भय बढ़ पाऊँगा
क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा
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मन मुझसे कहता फिर-फिर है
झुक जाये ,क्या तेरा सिर है
स्वप्न अपूर्ण अभी तक चिर है
कह अलंघ्य हुआ क्या गिरि है
लेकिन कबतक रोज़ रोज़ के ,
तूफानों से लड़ पाऊँगा
क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा १
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यूँ तो सब संकल्प अटल हैं
मन-प्राणों में तप का बल है
सदा दूर भ्रम-भीत सकल है
लक्ष्य प्राप्ति हित मन बेकल है
छल-प्रवंचना-मृग मरीचिका में ,
पर कबतक अड़ पाउँगा
क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा २
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दीपक बनकर प्रतिपल जलना
मौन हिमल सा तिल-तिल गलना
स्वयं सुनिश्चित पथ पर चलना
अपने ही मन को नित दलना
इस असह्यतम अग्निपन्थ पर,
कबतक निर्भय बढ़ पाउँगा
क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा ३