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अच्युतं केशवं

Inspirational

5.0  

अच्युतं केशवं

Inspirational

कबतक निर्भय बढ़ पाऊँगा

कबतक निर्भय बढ़ पाऊँगा

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क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा

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मन मुझसे कहता फिर-फिर है

झुक जाये ,क्या तेरा सिर है

स्वप्न अपूर्ण अभी तक चिर है

कह अलंघ्य हुआ क्या गिरि है

लेकिन कबतक रोज़ रोज़ के ,

तूफानों से लड़ पाऊँगा

क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा १

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यूँ तो सब संकल्प अटल हैं

मन-प्राणों में तप का बल है

सदा दूर भ्रम-भीत सकल है

लक्ष्य प्राप्ति हित मन बेकल है

छल-प्रवंचना-मृग मरीचिका में ,

पर कबतक अड़ पाउँगा

क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा २

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दीपक बनकर प्रतिपल जलना

मौन हिमल सा तिल-तिल गलना

स्वयं सुनिश्चित पथ पर चलना

अपने ही मन को नित दलना

इस असह्यतम अग्निपन्थ पर,

कबतक निर्भय बढ़ पाउँगा

क्या ये पर्वत चढ़ पाऊँगा ३


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