कभी-कभी
कभी-कभी
खेल लेती हूँ कभी-कभी अल्फ़ाज़ से,
पर कुछ जज़बात है, कुछ खास है जो
खामोश-खामोश रहते हैं,
मना लेती हूँ कभी-कभी सब को प्यार से,
पर कुछ हालात हैं, कुछ अहसास हैं,
जो रूठे-रूठे से रहते हैं,
बचा लेती हूँ कभी-कभी खुद को उठते सैलाब से,
पर कुछ दिल के हिस्से हैं,
कुछ किस्से है जो भीगे-भीगे से रहते हैं,
मिल लेती हूँ कभी-कभी नींद मैं उस शख्स से,
पर कुछ सपने है, कुछ अपने है जो अधूरे-अधूरे से रहते हैं।