"कब तक"
"कब तक"
अफसोस भारत माँ की इस धरती पर,
बेटियाँ बचानी पड़ती हैं
चीख-चीख कर जोहरी को भी यहाँ,
हीरे की कीमत समझानी पड़ती है,
ये कैसी उलझन है जो,
जन्म से ही सुलझानी पड़ती है,
आखिर क्यूँ अपना जीवन जीने हेतु,
हमको ही अपनी महत्ता बतलानी पड़ती है?
क्यूँ हर बंधन मे हमारे लिए ही,
सीमा तय कर दी जाती है,
क्यूँ हर घर मे बेटियाँ बेटे की,
तुलना कर पाली जाती हैं ?
इन प्रश्नो के जवाब मे अब,
समय न यूँ बर्बाद करो,
उठो चलो आगे बढ़कर स्वयं को,
इन बेतुके बंधनो से आजाद करो,
माना आगे बढ़ने मे हमको,
ढेरों कठिनाई आएँगी,
किन्तु अबकी संघर्ष गाथा ये,
अपनी दहलीज से लिखी जायेगी,
चलो स्वयं को इतना मजबूत करें,
कोई शोषण न कर पाए अब,
गर्भ मे कन्या की हत्या करने वाले,
रोयें और पछताए सब,
संस्कारों के साथ हमे अबकी,
बात ये सबको समझानी है,
हाथों मे चूड़ी पहनने वालो की
ताकत कम नही हो जाती है,
वक़्त को अपना करने की,
अबकी अपनी ही बारी हो,
जो संरक्षण न मांगे कभी,
वो जाति अब केवल नारी हो l