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विजय बागची

Abstract

4.6  

विजय बागची

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काश कोई बात कर ले

काश कोई बात कर ले

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काश कोई बात कर ले,

दिन तो गुज़र गया, रात कोई पार कर दे,

काश कोई बात कर ले।


भरा पड़ा संपर्कों से फ़ोन,

मित्रों चित्रों का भंडार और अतरंगी से टोन,

रात्रि हुई भोजन हुआ जब लगा हाथ से फ़ोन,

बातें अब कोई दो चार कर ले,

काश कोई बात कर ले।


कुछ संपर्कों के अलग ही शान होते हैं,

पता नहीं वो कब ऑन होते हैं।

दिखते तो ऑनलाइन हैं,

पर हम अनजान होते हैं।


यूँ व्यस्तता इतनी उनकी,

बातों में भी नहीं जान होते हैं,

कोई तो यह समस्या निज़ात कर दे,

काश कोई बात कर ले।


किसी वार्ता की ही बात करते हैं,

जब हम बातें थोड़ी ऑन करते हैं,

उसने अनजाने में किया हो मेसज,

ऐसे ही तान भरते हैं।


यह शिकायतें नहीं मिरी यह तो रोज़ की बात है,

आज यह पहली नहीं, ना जाने कौन-सी रात है,

मैं कभी देर ना हो जाऊं, किसी प्रतिउत्तर में,

मन कहता है जा फ़ोन आन कर ले,

काश कोई बात कर ले।


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