कानों का ठंडा बाज़ार
कानों का ठंडा बाज़ार


किसका करूँ उत्साह-वर्धन,
किसे बीच में ही टोक दूँ।
सही या ग़लत, सच्चा या झूठा,
यहाँ तो हर एक मुझे तौलने पर आमादा है।
आवाज़, बोल, शब्द, चीख़,
दुत्कार और मनुहार
लगता है होठों की इस दुनिया में
अब कानों का बाज़ार ठंडा जाता है।
अपना अपना राग है सबका,
अपनी अपनी डफ़ली
दलीलों, तर्कों के इस कोलाहल में
विचारों का कितना सन्नाटा है।
दो-दो होने के बाद भी इनका
अस्तित्व अब ना दर्ज़ हो पाता है
हमारा आईना शायद अब होठों की
ज़द के पार नहीं जा पाता है।
सहिष्णु, असहिष्णु, गद्दार,
देशभक्त, निरपेक्ष और कट्टर
तमगे लिए घूम रहे हैं सब
पर मत भूलो
वीरता, शौर्यता, भारतीयता का
पदक आज भी सैनिक ही पाता है।
सुनता जाता है ख़ामोश रह कर,
काम अपना कर जाता है
इन दो कानों का सही
इस्तेमाल वही तो कर पाता है।
कटाक्ष, पत्थर, थप्पड़, लात,
संगीन या गोली
सब खाता है
कभी दुश्मन से सर कटवाता है,
कभी घर में ही चीर दिया जाता है।
मिथ्या मानवाधिकार के नाम पर
देशवासियों से दंड भी पाता है
मत भूलना किन्तु,
मरणोपरांत या जीवित
परम वीर सिर्फ वही कहलाता है
परम वीर सिर्फ वही कहलाता है।