जस्बात
जस्बात
परिंदों की उड़ान तन्हा नहीं थी कभी ।
कुर्बत के साए में परवाज लेती रही।
शज़र में तो कभी शहर में रही।
मगर हर वक्त कुर्बत में रही।
परवाज ने उसकी,
फासले न बनाएं कभी ।
मिलती रही उसे,
अपनों से दुआएं सभी ।
तमन्नाओं को भी न झुकाया उसने।
हौंसले जो बढ़ा दिए जस्बातों ने मिलके।
