ज़रा चल के देखते हैं
ज़रा चल के देखते हैं


भूले हुए उसुलों पे,
खर्चे किए फुजुलों पे,
लम्हों के इन नक़ीबों पे,
ज़रा चल के देखते हैं।
ऊंचे ऊंचे पहाड़ों पे,
लंबी लंबी मीनारों पे,
और चाहो तो सितारों पे,
ज़रा चल के देखते हैं।
छोटी छोटी वादियों में,
नन्ही सी प्यारी गलियों में,
कस्बों के उन मकानों में,
ज़रा चल के देखते हैं।
आहों भरी बस्तियों में,
रोती बिलखती हस्तियों में,
गुर्बत से मारी बहनों में,
ज़रा चल के देखते हैं।
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खोई हुई जवानी में,
कुदरत की उस निशानी में,
पढ़ता जहां रहा था मैं,
ज़रा चल के देखते हैं।
जलती हुई लाशों को,
कब्रों की शांत आवाज़ों को,
ख़ामोश पड़ी लाशों को,
ज़रा चल के देखते हैं।
पैसा बहुत कमाया है,
गरीबों पे भी लुटाया है,
कईयों को मार के पाया है,
ज़रा चल के देखते हैं।
आसां नहीं था लिखना "अजहर",
कविता ने बहुत चलाया है,
क्या कुछ नहीं सिखाया है,
ज़रा चल के देखते हैं।