ज़बाने उर्दू
ज़बाने उर्दू
क्या कहूं क्या है शान ए उर्दू,
अपने आप में ही है अलग ज़बान उर्दू।
तालातुम होते हैं अशआर में तो क्या गाम है,
यही तो है एक अलग मक़ामे उर्दू।
फसाहत का बयां करता नहीं कोई,
रहें हैं अब कहां भला आशिकाने उर्दू।
बलागत की नहीं मिलती अमां,
अश्कों पे है पुरफिशाने उर्दू।
कभी एक वक्त था जब जानते थे सब इसको,
कोई कहता था वाह! सुनो कलामे उर्दू।
कभी अदालत में चढ़ती थी परवान वो शान से,
कभी डरते थे कातिल सुन कर दिफा ए दफाने उर्दू।
कहां है लोग वो जो जानते हैं आज भी पढ़ना,
और क्या शान थी वो जानाने जाने उर्दू।
रुको "अज़हर" ज़रा ठहरो मिलेंगे वो भी,
जो बचे हैं अब आशिकाने उर्दू।