जननी
जननी
ईश्वर की सुंदर और श्रेष्ठतम कृति।
कवियों,चित्रकारों की कलमों की आकृति।
देवी के समान पूज्य।
माँ, बेटी, बहन, पत्नी हर रूप में योग्य,
फिर क्यों बनती है हर कहीं भोग्य।
जीवन मुश्किल से पाती है।
मिल जाए तो किस तरह जी पाती है।
दुखी होकर तिल-तिल मरती है।
कभी मार दी जाती है या
वह स्वयं को खत्म कर देती है।
वह तो देती है जीवन को गति,
फिर क्यों है उसकी ऐसी नियति।
संवेदना शून्य समाज मानसिक बीमारी से त्रस्त है।
प्यार, ममता बांटती सबको,
उसकी अपनी झोली रिक्त है।
अब उसे आगे आना होगा।
अपने आपको जाग्रत करना होगा।
अपने को जीवित रखना होगा।
नहीं तो सृष्टि कैसे बचेगी ?
कैसे वह जीव की रचना करेगी ?
संसार अजन्मा ही रहेगा,
जब जननी ही नहीं रहेगी।