जिन्दगी
जिन्दगी
खुली किताब सी होती है जिन्दगी,
करते हैं पल-पल इसकी बंदगी।
असङ्ख्य पन्ने जुड़े इस किताब में,
लगती फिर भी उलझन में फिरंगी।
समझ ना पाए कभी कोई इसको,
अगले कदम क्या मिलेगा उसको।
कभी सतरंगी है तो कभी अतरंगी,
पल-पल नवीन रंग दिखाये सबको।
कभी खुशियों से चहकता जीवन,
कभी विषधर सा गम घेरता मन।
सुख दुख का है यह अद्भुत संगम,
फिर भी भोर सा लगे मनभावन।
कितने ही ख्वाब अधूरे रह गए,
कितने बिन देखे ही पूरे हो गए।
कभी हसरतों ने मली हथेलियां,
कभी बिन घुंघरू थिरका जीवन।
जैसे-जैसे पन्ने पलटती जिन्दगी,
चाहतों की लगती है, यह तिश्नगी।
हर पन्ने के खड़े अंजाने सवालों में,
उलझती, खुली किताब सी जिन्दगी।
