ज़िंदगी क़ी आपाधापी
ज़िंदगी क़ी आपाधापी
ज़िन्दगी क़ी आपाधापी में
ज़िंदगी जीना ही भूल गये !
पड़ोसी की खूसी देख़ कर,
खुस होना ही भूल गये !
थोडे और की चाह में
इस क़दर गुम हूवे की
खुद के लहू को पानी क़र गये ?
ओफ़िस जाने की जल्दी इतनी क़ी
राह में पड़ा तड़पता ,ख़ून से लटपट,
हर एक साँसो से लड़ता, इंसा को भी
उसिके के हाल पे छोड़ गये !
थोड़ा जल्दी और थोड़े और की चाह में ,
इंसानियत को ही मार गये !
एक़ बार न सोचा चौराहे पे बैठें
हाथ में कटोरी थामें, उस बचे,
उस भूखे के बारे में ?
जिनके पास ईक वक़्त का खाना नसीब नही
उसकी मदत तो दूर,
उसके हाल का मखौल बनाने में ही गुम गये !
थोड़े और की चाह में,
खुद के बूढ़े माँ बाप को ही भूल गये !
ज़िंदगी की आपाधापी में,
खुद को खुद से मिलना ही भूल गये !
अब तो नींद से जागो प्यारे,
थोड़ी सी खूसियाँ समेटो अपने दामन में
जो है उसमें खुश हो लो
और ठोड़ी सी खूसियाँ विखेरों प्यारे
फिर ये न कहना खुद से खुदाई कि लिये
वक़्त लेना ही भूल गये !
ज़िंदगी की आपाधापी में
ज़िन्दगी जीना ही भूल गये !