STORYMIRROR

Surendra kumar singh

Abstract

4  

Surendra kumar singh

Abstract

जिज्ञासु रहे

जिज्ञासु रहे

1 min
261


जिज्ञासु रहे

हम भी,तुम भी

एक दूसरे के प्रति

मिले भी एक दूसरे से

अपनी एक दूसरे की

जानकारियों के सबब

बातें की खूब

करते रहे

कर भी रहे हैं

पर ये सिलसिला

जो अभी ठहरा ठहरा सा दिख रहा है

कब का टूट चुका है सच में

मैं तुम सा हो गया हूँ

और तुम्हे मुझसा होने की

जरूरत नहीं है शायद

ठीक ही कहा तुमने

चलो अपनापन है हममें

पर मैं तुम्हारे लिये

कुछ नहीं कर सकता

इतना जरूर कहूंगा

किसी का कुछ लेना नहीं

और जो लिये हो जिसका भी

लौटा दो,

और मैं इस दुनिया में

अपना ढूंढ रहा हूँ

लौटाने के लिये

मिलवा दो न मुझे

मुझसे

या बता दो अपनी दुनिया से

मेरा होना

तुमसे अपनापन

और खुद को ढूंढना।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract