इंतजार का फल खट्टा
इंतजार का फल खट्टा
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तरस गई आंखें,
बरस गए आंसू,
ना जाने क्यों हम हो गए बेकाबू।
वक्त की सादगी हम समझते थे ।
अपनी दीवानगी क्यों ना कहते थे।
ना जाने किस बात का हमें डर था।
शहर में हमारा कौन सा घर था।
हम किस बात से डरा करते थे।
उससे क्योंं ना कुछ कह पाते थे।
इन सवालों के साथ,
कितने लम्हे गुजर गए।
इन लम्हों में उसके,
कितने दीवाने बन गए।
अब ना वो है, ना बाकी है जमाने मेरे।
फिर भी मशहूर है ,शहर में फसाने मेरे।
क्योंकि ना मेरी कोई मंजिल,
ना मेरा कोई आशियाना,
रह गया मेरा और उसका अफसाना।