ईर्ष्या
ईर्ष्या
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जला देती है
मानव को
भीतर से
जला देती है
इच्छा अंतर्मन से
जला देती है
मानव की
मानवता को
न छोड़ती है
मानव को
मानव-सा
न देती है
साथ किसी
कष्ट में
ये ईर्ष्या ही
तो है
जो छीनती कम
और खत्म
अधिक करती है
घुटता मानव रहता है
खो कर अपनी
छाया में और
डूब कर रह जाता है
मृत्यु की माया में॥