हम भी
हम भी
रोज़ सवेरे काम के शुरू के घंटों में,
हम मिलते बतियाते हैं सहकर्मियों से,
पढ़ते हैं अखबार भी,
और पीते हैं चाय भी।
महीने में दो बार दो घंटे पहले निकल जाते हैं,
तो हफ्ते में एक बार दो घंटों तक समाज-मज़हबी कामों में।
काम के घंटे बजते रहते हैं, घड़ी में, कानों में नहीं।
लंच, टाइम से थोड़ा पहले शुरू हो जाता है,
थोड़ा देर तक खत्म होता है।
मानते हैं कि,
सात घंटों की जगह ज़रूरत है सिर्फ दो घंटों के काम की,
बाकी लोग भी हैं न काम करने के लिए।
फिर कहते हैं हम कि,
देश हमारा है।
काश! हम भी देश के होते।