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Dhan Pati Singh Kushwaha

Abstract

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Dhan Pati Singh Kushwaha

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हल-भूमि की घुटन का

हल-भूमि की घुटन का

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आता है जब हर साल दशहरा,

और आती है हर बार दीवाली।

दमघोंटू वातावरण में सबको , 

अखरती बहुत जलती हुई पराली।


आरोप-प्रत्यारोप के दौर हैं चलते,

देखते हैं जब प्रदूषित चादर काली।

चक्षु-चुभन देती है अति पीड़ा, 

लगता जैसे मिर्च वायु में डाली।


धुआं उगलते जहर बहाते , 

हैं अपने और अपनों के कारखाने।

हम तो गरीबी के मारे हैं अब,

त्याग भावना हम क्यों कर मानें।


सबको एक सी कुदरत की ब्यापें विपदाएं ,

राजा-रंक धर्म -क्षेत्र के कुछ भेद न जानें।

अक्सर पीड़ा ज्यादा भोगते हैं निर्बल ,

सार्वभौमिक सत्य हम सब ही ये जानें।


त्वरित उपाय किए जाते हैं ,

मचा करके बड़े जोर का शोर।

जैसे सबसे बड़े हितैषी हम ही हैं, 

जहां में हम से बड़ा नहीं कोई और।


रेवड़ियां मिल जाएं अपनों को,

उन सब परियोजनाओं पर रहता जोर।

जन-धन का शोषण हम कर लें ऐसे,

जिससे कोई कह सके न हमको चोर।


शमन चर्चाओं का हो जाता है,

 जैसे ही गुजर जाता है ये दौर।

चर्चा मुक्त सभी हो जाते हैं,

अब ठोस प्रयास करे कोई और।


मुफ्त रेवड़ियां चुनाव के मुद्दे होते हैं,

घोषणा-पत्र में ऐसे मुद्दों को मिले न ठौर,

भगत सिंह सबकी चाहत हैं पर,

मेरा नहीं उनका घर तो हो कोई और।


खुद मरने पर ही स्वर्ग है मिलता,

 दूजे अगणित मरने से भी न मिल पाएगा।

सार्थक सतत् प्रयास करें- शक्ति कर अर्जित,

निश्चित ही प्राकट्य पावक का हो जाएगा।


जब करेंगे हम न्यूनता निजी सुखों में,

 परिश्रम ही मूल मंत्र जब बन जाएगा।

सम अवसर सबको सीमित जनसंख्या संग,

तब ही खुद यह सब जग सुंदर हो जाएगा।


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