हे विराट!
हे विराट!
हे विराट, आनन्दमय
प्रकृति के सृष्टा !
क्यों बनते हो दृष्टा ?
कब तक चलेगा यह चक्र,
कब पूरा होगा तमस का यह वक्र ?
कब तक रजस का दावानल
शमशान करेगा जगत को,
किस मुंह से उत्तर देगी मानवता
गत आगत को?
यद्धपि प्रकृति का नियम है परिवर्तन,
पर स्वीकार नहीं करता यह सब अंतर्मन !
क्या यही अर्थहीन, अबोध
अंधकारमय जड़सत्ता
पाएगी मोक्ष कभी ?
क्या वह अचिंत्य चैतन्य
प्रकाशमय दिव्यसत्ता
आएगी धरा पर कभी ?
क्यों नहीं दिखाते प्रकाश,
क्यों नहीं देते खुला आकाश,
कब तक इस उजाड़ होती प्रकृति के
मातम पर बैठ, मनुष्य कहेगा
काश, काश, काश !