हैं आँखें अभ्यस्त तिमिर की
हैं आँखें अभ्यस्त तिमिर की
हैं आँखें अभ्यस्त तिमिर की और उजाले गड़ते हैं,
उल्लू के इंगित पर तोते दोष सूर्य पर मढ़ते हैं...
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बोटी एक प्रलोभनवाली फेंक सियासत देती है,
हम कुत्तों जैसे आपस में लड़ते और झगड़ते हैं...
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यूँ तो है आजाद कलम बस पेशा करना सीख गयी,
चारण विरुदावलियों को ही कविता कहकर पढ़ते हैं...
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लेखपाल जी दस फीसद में रफा-दफा सब कर देते,
पर कानूगो बीस फीसदी लेकर कलम रगड़ते हैं...
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राशन की दुकान के मालिक मुखिया जी के साले हैं,
बी.पी.एल.वाले जीजाजी बोल सीढीयाँ चढ़ते हैं...
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डी.एल.बीमा हेलमेट परमिट हो न हो फ़िक्र किसे,
धनतेरस है निकट दरोगा गाड़ी दौड़ पकड़ते हैं...
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जिन शाखों पर फूल खिले हैं झुकी-झुकी सकुचाई हैं,
किन्तु कटीले झाड़ महल्ले भर में फिरे अकड़ते हैं...
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रामरहीमों राधे माओं की रंगीन मिजाजी से,
रंग तिरंगे के तीनों बदरंग दिखाई देते हैं...
