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Rajiv Jiya Kumar

Abstract

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Rajiv Jiya Kumar

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हाशिए पर धकेला हुआ

हाशिए पर धकेला हुआ

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न किसी की तवज्जो

न संग किसी का

हैरत नही, अछूूूत सा

जहान के इस भीङ में

वह अकेला हुुआ,

हाशिए पर धकेला हुआ।।

सिसकियों से बिंधा

लम्हा लम्हा अब उसका,

सहमकर सिमटा वह

दर्द अपना न बोले,

जानता कराहेें उसकी

कान में प्रायः सबकी

बस जहर घोले,

सुनते ही उसकी

गलियों में अपने

अक्सर झमेला हुआ,

हाशिए पर धकेला हुआ।।

जिक्र पर उसकी

साफगोई अपनी

तस्वीर यही आंकती

फ़िक्र में हूॅूँ जिसकी

तिरस्कृत वह

व्यवहृत मानो बेकार,

जाने यह कौन?

अपना संस्कार!

हाशिए पर धकेला हुआ।।

     



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