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Shravani Balasaheb Sul

Abstract

4.7  

Shravani Balasaheb Sul

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हाँ... नहीं

हाँ... नहीं

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हाँ सोने की नहीं, लकड़ी की बनी हैं

पर मधुर हैं, बासुरी बेसुरी नहीं 

हा बूढ़ी है मां, मगर बोझ नहीं

गुमान है वह, मजबूरी नहीं


हाँ सौगात नहीं, सितम हैं जिंदगी

पर सितमगर वही हो, यह दस्तूर नहीं 

हाँ मेहरबाँ नहीं, बेरहम हैं मौसम

फिर भी यह पतझड, उसी का कसूर नहीं


हाँ गुमसुम हैं कली, न एक पंखुड़ी खिली

पर भवरे को चाहत में, ठहरने का सबर नहीं

हा मचलती है पतंग, उड़ जाने को आसमा में

पर अंजाम गलत है, जुड़ी डोर से गर नहीं


हा बरसता हैं बादल, पर तरसता भी हैं

भटकता हैं अकेला, कोई सहारा नहीं

हा मुरझाए फूल, पर अपनी मर्जी से नहीं

धूप ने जलाया, तब माली ने सवारा नहीं


हा बहता हैं समंदर, मगर नदी सा नहीं

जुनून में उसके, मिट जाने का सुरूर नहीं

हा नर्म नहीं माटी, चट्टान का कण हैं

पर घुल जाती हैं पानी में, उसे कोई गुरूर नहीं


हा अंधेरी हैं रात, मगर काली नहीं

गुलाबी ख्वाबों में, झपकते नैन नहीं

हाँ बावला है मन, कुछ बेफिकरा भी हैं

पर बेचैनी भी इतनी, कि एक पल चैन नहीं।


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