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संजय असवाल

Abstract

4.7  

संजय असवाल

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हां,मैं अछूत हूं

हां,मैं अछूत हूं

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हां मैं अछूत हूं 

तुम्हारे लिए

तुम्हारे समाज के लिए,

जिसे तुम कई नामों से बुलाते हो 

कभी डोम, 

कभी चमार

कभी भंगी पुकारते हो।

मुझे छूना तुम्हारे लिए पाप है 

और मैं पापी हूं 

तुम्हारी नजरों में 

तुम्हारी बसाई इस दुनियां में,

पर इस पाप में 

तुम भी भागीदार हो,

तुम् अपने ईश्वर के सामने

दंड के हकदार हो।

तुमने हमें मंदिरों में जाने से रोका 

क्यों कि मंदिर अपवित्र हो जाएगा,

अपने कुंए से 

पानी लेने से रोका 

क्यों कि वो अशुद्ध हो जाएगा,

तुम्हारे गुजरने पर ही मैं 

रास्ते से गुजरता हूं 

क्यों कि तुम्हें 

मेरी छाया से डर लगता है,

तुम हमे दूर बैठाते हो 

क्यों कि मेरी काया से 

तुम्हें सड़न आती है,

तुम अपनी जूठन हमें खिलाते हो 

ताकि हम जिंदा रहें

तुम्हारे रहमो करम पर पलते रहें। 

हमें अपवित्र मानते हो

मैं अस्पृश्य हूं 

तुम्हारी नजरों में,

इसलिए तुमने हमें बसाया 

दूर गांव के बाहर 

एक कोने में,

मेरी दुख तकलीफ़ से 

तुम्हें कोई वास्ता नहीं,

मुझे देख कर ही 

तुम्हारी नाक मुंह 

सिकुड़ जाती है,

उबकाई मुझे देख 

तुम्हें आने लगती है।

तुम्हारी नजरों मे 

मैं अक्सर खटकता हूं,

मेरी मौजूदगी 

तुम्हें रास नहीं आती है,

हालांकि मैं 

बहुत काम तुम्हारे आता हूं,

तुम्हारी लाशों को 

अपनी पीठ पर धोता हूं,

तुम्हारी चिता को आग देता हूं,

बरसों से तुम्हारे गंदगी को 

सर माथे ढोता हूं।

तुम पैदा भी होते हो 

हमारी माओं के हाथों से,

पर मैं 

हूं तो अछूत ही

तुम्हारी नजरों में,

मैंने जन्म भी लिया है 

उसी कुल में,

जिसे सदियों से तुमने 

तुम्हारे पुरखों ने दबाया 

प्रताड़ित किया 

बेरहमी से कुचला,

सामाजिक बंधनों में 

बांध निकृष्ट बताया,

हमारे अधिकारों का हनन किया 

उस पर डाका डाल

उन्हें हमसे ही चुराया ।

शोषण आत्याचारों की सीमा का

उस पीड़ा का क्या कहूं 

जो तुमने सदियों से हमें दिया है,

वो जुल्म की इंतेहा

वो घृणा का भाव

हमारी रग रग में 

रच बस गई है,

जो न भूले भुलाई जाती है।

तुम्हारे सारे निकृष्ट 

कृत्य हम करते हैं 

पर घृणा नफ़रत

जो तुम्हारे दिल में 

हमारे लिए है,

उसे हम सदियों से 

पीते आएं हैं।

तुम से तुम्हारे समाज से 

कभी कोई उम्मीद नहीं रखी 

ना तब 

ना आज वर्तमान में,

हम खुश हैं खुद में

अपनी छोटी सी दुनियां में,

पर हमारी खुशी

तुम्हें रास कहां आती है,

जात पात ऊंच नीच की खाई 

तुमने आज भी बनाई है,

वैमनस्य का भाव 

तुम आज भी रखते हो,

हमें कुचलने को आतुर 

सदैव दिखते हो,

ना तुम बदले  

ना तुम्हारी सोच

ना तुम्हारी सामाजिक सच्चाई,

अछूत हम तब भी थे 

और आज भी हैं 

तुम्हारी उन्हीं 

दूषित कुंठित नजरों में।


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