गुरुमय जीवन।
गुरुमय जीवन।
मन और बुद्धि तुझको हो अर्पण, यह वर प्रभु तुझसे मैं मांगूँ।
तेरे हृदय में निवास कर सकूं, अहम भाव अंतर्मन से मैं त्यागूँ।।
बिन त्याग अमरत्व कठिन है, कठिन है यह जीवन की शैली।
परम शांति बिन त्याग अधूरा, चादर हो गई इस तन की मैली।।
कण-कण में तुझको जो पावे, पारलौकिक सुख उसको मिल जावे।
अंतर्यामीरूप तुम जग विख्याता, धर्म-कर्म तुम बिन न हो पाता।।
क्यों ढूंढ रहा इत-उत तू उसको, अंतर्मुखी बनकर तो देखो।
हृदय निवास ही मंदिर-मस्जिद, मिथ्या ज्ञान का चोला फेंको।।
विषय वासना अविद्या की जननी, अवसाद ग्रस्त है रहनी-सहनी।
चित्त धरे जो प्रभु चरणों में, देर नहीं भव-सागर तरने में।।
धैर्य युक्त बुद्धि से उपराम उपजता, परमात्म स्वरूप के दर्शन है करता।
विचार शून्य बुद्धि जब बनती, निज स्वरूप का भान वह करता।।
मानव जन्म की सार्थकता इसी में, परमतत्व को जिसने जान लिया।
"नीरज" दर्शन करता हर कण में, "गुरूमय" जीवन ही ढाल लिया।।