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Amrita Mishra

Inspirational

5.0  

Amrita Mishra

Inspirational

मेरा आसमान मैं चुन लूँगी

मेरा आसमान मैं चुन लूँगी

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जो चाहूँगी मैं, वो होगी मेरी कहानी

सुनेगा ज़माना, वो मेरी जुबानी।

झुठलाएंगे हम वो, क़िस्से पुराने

जो कहते थे स्त्री, यही तेरी कहानी।


हमने बदला है खुद को, अब तुम भी बदल लो

अपनी मर्दानगी को, अपने अंदर ही रख लो।

सारी इज़्जत का ठेका, क्या हमने लिया है

हया आज थोड़ी सी, तुम भी कर लो।


मान दोगे मुझे ,तो मैं सम्मान दूँगी

प्यार दोगे मुझे ,तो जान भी वार दूँगी

अपने कर्तव्य सारे, जो अब तुम निभा दो

तो अपने ऊपर तुम्हें, सारे अधिकार दूँगी।


मैं वो मीरा नहीं, जिसको विष था पिलाया

ना वो औरत हूँ जिसको, तुमने जीवित जलाया

पांचाली का मुझमें, कोई अक्स ही नहीं है

जिसकी इज़्जत को तुमने, सभा में उछाला।


कुछ प्रश्न है कुछ जिज्ञासा है,

हर नर प्रधानता के युग से

कुछ गौतम ऋषि की शंका से है,

कुछ अर्जुन के द्वापरयुग से।

कुछ परशुराम के परशु से,

जिसने माँ तक को मार दिया।


कुछ राम की मजबूरी से है,

कुछ वर्तमान के कलयुग से।

वैदेही की पावनता पर,

कैसे संदेह किया तुमने ?


देवी अहिल्या को कैसे,

पत्थर का श्राप दिया तुमने ?

शिव की सती तुम्हारी पुत्री थीं,

उस स्वयं अग्नि सी शक्ति को

जलने पर विवश किया तुमने।


पुत्री, माँ, पत्नी, बहिन सहित

हर रूप को मेरे रौंदा है

जीवन के पूरे हिस्से को

तुमने चूल्हे में ओंधा है।


किसने तुमको बतलाया था

और कैसे तुमने ये मान लिया

कमरे की चार दीवारी में

नारी का जीवन होता है।


जिन रिश्तों से प्यार बरसता है,

उन रिश्तों का तुमने कत्ल किया

माँ-बहन से प्यारे शब्दों को

तुमने गाली में बदल दिया।


लोभी दहेज के घर आकर

बेटे का भाव लगाते हैं।

जो भाव तनिक भी छूट गया

जीते जी मेरा दहन किया।


बेटे को चाहने वालों के

ताने सुन कर हम हार गए,

बेटी को बोझ बताकर वो

फिर हमको कोख में मार गए।


मुझमें भी चाह थीं पढ़ने की,

मैंने भी पंख पसारे थे।

तुम आकर शादी की आरी से

उन पंखो को भी काट गए।


दृश्य जो सदियों पहले था,

वो दृश्य आज भी जिंदा है,

पहले भी शासक अंधा था और

आज भी शासन अंधा है।


कल एक द्रौपदी चीखी थी

अब कई निर्भया पीड़ित है

कल एक दुशासन था नर में

अब कई हजारों जिंदा है ।


अधिकारों को अपने परे हटा

मैंने कर्तव्यों का वहन किया।

हद पार तुम्हारे कृत्यों को

मैंने नियति समझ के सहन किया।


कल एक इन्द्र ने छलने को

ऋषि गौतम का भेष बनाया था

अब कई दरिंदो ने आकर

संतो का चोला पहन लिया।


मेरे अस्तित्व को तुम सबने,

सदियो तक मिलकर है कुचला।

मेरी परिभाषा दी तुमने,

नारी होती ही है अबला।


जीवन के कुछ नए रंगो से,

फिर अपना चित्र बनाऊँगी,

इस पुरूष प्रधान समाज में

जो हो चुका है कुछ धुंधला-धुंधला।


किसी और से जुड़ता नाम नहीं

पहचान मैं अपनी खुद दूँगी।

वर्षों पहले जो रच दी थीं

तस्वीर वो अपनी बदलूँगी।


मेरे पर में परवाज की शक्ति है,

कमजोर मुझे मत समझो तुम,

मुझे दखल कतई मंजूर नहीं,

मेरा आसमान मैं चुन लूँगी।।


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