गुरु
गुरु
गुरु जो एक माली की तरह पौधों को सींचता है,
इस आशा में कि उनसे पुष्प खिलें और
सुभासित कर दें जगत को अपनी महक से।
गुरु जो एक
कुम्हार की तरह मिट्टी को मूर्त रूप देता है,
मटके को आकार देने के लिए बाहर चोट तो देता है
साथ ही एक हाथ सहारे के लिए अन्दर भी रखता है।
गुरु जो एक
पावन दीप की तरह अपने तले में तिमिर छुपा कर,
बाती को सतत प्रज्ज्वलित रखता है
ताकि विश्व धवल प्रकाश से सराबोर रह सके।
अंततः उसकी कल्पनाएँ साकार होती है
वह पुष्प ईश्वर के शीश पर शोभायमान होता है
वह मटका कई प्यासों को तृप्त करता है
वह दीप अंधेरी राहों को प्रकाशित करता है।
धन्य है वह गुरु जो एक क्षण गवाएँ बिना
पुनः एक नव-सृजन के लिए चल पड़ता है
फिर कोई दीप प्रज्ज्वलित करने
गीली मिट्टी को मूर्त रूप देने
फिर एक पुष्प सुभासित करने।