गुमनाम
गुमनाम
कभी-कभी यह ख्याल आता है,
मेरे माता-पिता ने मेरा नाम रखा ही क्यूँ?
जब कहीं लिखना ही नहीं था,
ना इस घर के बाहर मेरा नाम है
और ना उस घर के बाहर होगा,
जहाँ मेरा भविष्य में जाना होगा।
जब छोटी थी तो लगा कि
शायद मेरा नाम लिखना भूल गए
मेरे भाई के नाम के साथ,
परंतु यहाँ पर तो नहीं है
मेरी माँ का भी नाम,
मेरे पिता के नाम के साथ।
माँ ने बोला, दुनिया का है यही रिवाज़
नहीं उठाता कोई इसके खिलाफ आवाज़,
तुम पर होते हुए भी इतना नाज़
नहीं कर सकते हम नया आगाज़,
ना जाने कैसा है यह राज़
क्यों लोगों को है एक नाम से एतराज,
बेटी, ना हो तुम बेकार में नाराज़।
सवाल यही है कि किस घर को अपना समझूँ?
या फिर मैं भी खुद को पराया समझूँ?
चाहे छू कर आ जाऊं आसमान
नहीं मिलता स्त्री को वह सम्मान,
और अगर दे भी दिया थोड़ा सा मान
तो जताते है, कर लिया बहुत बड़ा एहसान,
पहले चाहिए मुझे मेरी पहचान
बाद में दे देना मुझे देवी के नाम।
मेरी आजादी है मेरा अधिकार
क्यों नहीं करते इसे स्वीकार,
कब जाएगा लोगों का यह मानसिक विकार
किस बात का है यह प्रतिकार,
क्यों मेरे साथ होता है इतना पक्षपात इस प्रकार
ना जाने कब मिटेगा यह अंधकार।
यही है हकीकत
स्त्री के बोलने से भी,
लोगों को बहुत है दिक्कत,
नहीं रोकते तब
जब करता है कोई गलत हरकत,
फिर बाद में आ जाते है
देने मुझे नसीहत।
सवाल यही है कि कब आएगा यह बदलाव?
या फिर कर दूं इसे भी नज़र अंदाज़।