गंगा की व्यथा
गंगा की व्यथा
निर्मल - पावन तेरा जल,
पीकर मैं हो गई निर्मल,
शिव की जटा से आई,
भागीरथी है तेरे राही,
कहलाती तू सबकी माँई,
निर्मलता हमने तुमसे पाई,
तूने निर्मल किया संसार,
फिर क्यूँ है तेरा मन उदास ?
गंगा के मन की व्यथा
हे मानव ! तू बड़ा महान,
तूने कमाया बड़ा ही नाम,
पर तू न कभी ये जान पाया,
क्यूं दुखी होती मेरी काया,
मेरे जल में कूड़ा तूने बहाया,
कैसे निर्मल रहेगी मेरी काया ?
कहते हो तुम मुझको मैया,
पर मुझको मैला कर दिया,
अन्धभक्ति के नाम पर,
मेरा जल प्रदूषित कर दिया,
हे मानव अब तो जाग जा,
यूँ ना कूड़ा नदी में बहाना,
तब पावन होगी मेरी काया।