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आनंद कुमार

Abstract

4  

आनंद कुमार

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घुड़दौड़

घुड़दौड़

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ये जो शहरों का शोर है,ये चारों ओर है,

जिंदगी की कशमकश ऐसी,खुद के हाथ में ना बागडोर है।


झूठी खुशी की आस में कई ठिकाने बदल दिये,

मगर लोगों की जिंदगी फिर भी गमों से सराभोर है।


औरों से आगे निकलने की जंग की ये घुड़दौड़ है,

अन्दर है सन्नाटा और बाहर बहुत घना शोर है।


चेहरे पर मुखौटे बदल बदल कर सब घूम रहे हैं,

बस दूसरो के आगे अच्छा दिखने-दिखाने की हौड है।


ना जाने कैसी रोर है, कारवां गुज़र गया है,

सोचता हूं रुक जाऊं, मगर मंजिलें बची अभी कुछ और है।


इंसान इंसान को फूटी आंख नहीं भा रहा है,

दूसरे के आगे निकलने का डर सबको खा रहा है।


अनचाही हसरते रिश्तों के पैमाने बदल रही हैं,

अपनों का मौजूदगी अपनों को ही खल रही है।


अपने ही अपनों से मुंह मोड़ कर चले जा रहे हैं।

खामोशियां हैं ऐसी,कि एक-दूसरे पर कहर ढा रहे हैं।


शिकायतों में कट रही है जिंदगी,

तूतू-मैमै में घट रही है जिंदगी।


ना पूरी होने वाली लालसा बोल रही है,

तम पिपासा जिंदगी में नित नये जहर घोल रही है।


शौहरत की चकचौंध में लोग आगे बढ रहे है,

एक-दूसरे से आगे निकलने के चक्कर मे लड़ रहे है।


जिंदगी की आपाधापी में अपने कही खो रहे है।

लोग सामने तो है हंसते,मगर बन्द कमरों मे रो रहे हैं।


लोगों का ईमान यहां दो-दो कोड़ी में बिक रहा है,

आज का युवा तो बस टिक-टॉक पर दिख रहा है।


अपनी ग़लती पर वकील, दूसरों की ग़लती पर जज बन रहे हैं।

बस इसी नजरिये से लोग एक-दूसरे पर हावी पड़ रहे है।


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