घरौंदे
घरौंदे
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घरौंदे कच्ची माटी के,
बचपन के ये साथी थे,
उल्लास हृदय में भरते थे,
स्वप्न में रंग भरते थे,
कितनी शक्ति थी माटी में,
बचपन की उन घाटी में,
पल भर में रूठते थे,
पल बार मे खेलते थे,
वो माटी के घरौंदे कितने सुंदर थे,
नित नई क्रीड़ा रच हम खिलखिलाते थे,
आदित्य की तपन में भी हम मुस्काते थे,
छोटा सा घरौंदा ही जीवन था,
प्रेम का वह नवयौवन था,
इस माटी की शक्ति को हम तब पहचानते थे,
जब हम नासमझ कहलाते थे,
धरा के अंक में नित नए स्वांग रचाते थे,
इस क्रीड़ा से धरित्री को हँसाते थे,
आज कुछ इतने समझदार कहलाते हैं,
घरौंदे की उसी माटी को कलुषित बनाते हैं,
यह कैसी समझदारी हैं,
जो खुद पर ही भारी हैं।