Usha Gupta

Inspirational

4.5  

Usha Gupta

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घर

घर

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है कौन सा वह घर जिसे कह सके नारी अपना ?

लिया जन्म जिस घर में ?

कहलाई लाड़ली माँ, पिता की,

खेली, कूदी, झगड़ी भाई, बहनों से,

करती रही सुरक्षित अनुभव परिवार के बीच,

घर में अपने, घर में अपने ?


नहीं नहीं कहाँ है घर यह उसका ?

कहलाई सदा वह तो धन पराया,

थी वह तो अमानत किसी और की,

फिर हुआ कैसे वह घर उसका ?

है घर यह पिता और भाई का,

है नहीं अधिकार उसका,

हुआ फिर कैसे घर यह उसका ?


सोचा नारी ने मिलेगा घर विवाह के बाद,

 कह सकेगी जिसे वह अपना।

विवाह कर लिये आस हृदय में,

 संजोये सपने आयी घर अपने,

परन्तु है क्या घर यह उसका ?


तख़्ती पर बाहर लिखा है नाम पति का,

सोचा होगा नाम अन्दर घर के उसका,

कर न सकी कुछ भी बिन अनुमति पति के

 निहारती रही हर  पल चेहरा पति का,

कि शायद मिल जाए इजाज़त,

 करने की पूर्ण एक छोटी सी इच्छा अपनी,

रह गई ढूँढती घर में पूरे,

मिला न कहीं भी नाम अपना,

क्या कहते हैं इसे ही घर अपना ?


न है घर पिता का मेरा, न है घर पति का मेरा,

आख़िर है फिर कौन-सा घर मेरा ? 

बनाना ही होगा स्वयं आशियाँ अपना,

कर निश्चय दृढ़ ली पकड़ डगर शिक्षा की,

आती रहीं रूकावटें अनेक,

बिछते रहे राह में रोड़े अनंत,

चलती रही अडिग चुनी हुई राह पर अपनी,

लिये जुनून पहुँचने का मंज़िल तक,

कर पूर्ण लक्ष्य अपना ताने गर्व से सीना,

हुई खड़ी पैरों पर अपने।


 बनी अर्द्धांगिनी सही मायनों में पति की, 

गया लिखा नाम उसका भी तख़्ती पर,

ली सँभाल भर आत्म विश्वास मन में,

बागडोर घर व अपने काम की।


ग़र न कहने दिया पति ने उसे घर अपना,

तो तोड़ बन्धन सारे चल पड़ी राह पर नयी,

नवीन विश्वास व दृढ़ता के साथ,

न रही अब आवश्यकता किसी सहारे की,

हैं सशक्त कंधे संम्भालने को दायित्व सभी,

बना लिया सपनों का आशियाँ नया अपना,

जो कहलाया घर अपना।।


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